तानसेन और बैजू बावरा का अद्भुत संगीत
भारत के संगीत जगत में तानसेन और बैजू बावरा का नाम अत्यंत सम्मानीय है। इन दोनों संगीतकारों की कहानियाँ हमें न केवल संगीत की गहराई से अवगत कराती हैं, बल्कि सच्ची प्रतिभा और समर्पण का भी अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
तानसेन का जन्म 1506 में ग्वालियर के पास बेहट नामक छोटे से गाँव में हुआ था। बचपन में ही उन्हें संगीत से गहरा लगाव हो गया था। तानसेन का असली नाम रामतनु पांडे था, लेकिन उनकी अद्वितीय गायकी ने उन्हें "तानसेन" बना दिया। एक दिन, जब तानसेन जंगल में खेल रहे थे, उन्होंने संत हरिदास का संगीत सुना और उसकी ओर आकर्षित हो गए। संत हरिदास ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें शिष्य बना लिया।
तानसेन की संगीत साधना इतनी गहरी थी कि उनके गायन से दीप जल उठते थे और बारिश होने लगती थी। उनकी इस अद्वितीय प्रतिभा ने उन्हें अकबर के दरबार तक पहुँचाया, जहाँ वे नौ रत्नों में से एक बने। अकबर तानसेन के गायन से इतना प्रभावित थे कि वे तानसेन को "कंठाभरण वाणीविलास" की उपाधि दी।
बैजू बावरा का असली नाम बैजनाथ था और उनका जन्म भी ग्वालियर के पास हुआ था। बैजू भी संत हरिदास के शिष्य थे। बैजू की संगीत साधना इतनी गहरी थी कि उनके गायन से पत्थर भी पिघल जाते थे। वे अपने गुरु की संगीत की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अद्वितीय ऊँचाइयों पर पहुँचे।
बैजू बावरा और तानसेन दोनों ही महान संगीतकार थे और दोनों में गहरी प्रतिस्पर्धा थी। बैजू का मानना था कि संगीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि आत्मा की गहराइयों को छूने का माध्यम है।
ग्वालियर की धरती पर, एक दिन ऐसी घड़ी आई जब दोनों महान संगीतकार, आमने-सामने आ गए। यह प्रतियोगिता केवल दो संगीत प्रेमियों की भिड़ंत नहीं थी, बल्कि यह उस युग की संगीत साधना का चरमोत्कर्ष था।
गांव में चारों ओर चर्चा थी कि तानसेन और बैजू बावरा एक संगीत प्रतियोगिता में हिस्सा लेंगे। लोग दूर-दूर से इस अद्भुत मुकाबले को देखने आए। प्रतियोगिता की तैयारी बड़े धूमधाम से की गई थी। गांव के चौपाल को सजाया गया, और चारों ओर दीप जलाए गए थे। दोनों संगीतकारों ने अपनी अपनी तरफ से तैयारी की थी।
प्रतियोगिता की शुरुआत तानसेन के राग दीपक से हुई। जैसे ही तानसेन ने अपने सुरों का जादू बिखेरा, हवा में एक अजीब सी गर्मी महसूस होने लगी। तानसेन की आवाज में ऐसी मिठास थी कि उसके सुरों से दीयों में स्वतः ही आग लग गई। हर कोई चकित था, उनके संगीत की ताकत को देखकर।
फिर बारी आई बैजू बावरा की। बैजू ने अपनी आँखें बंद कीं और अपनी तान साधने लगे। उन्होंने राग मेघ मल्हार का आलाप शुरू किया। जैसे-जैसे बैजू के सुरों ने हवा को छुआ, आसमान में काले बादल घिर आए। उनकी आवाज में ऐसा जादू था कि अचानक बारिश होने लगी। लोग हैरान रह गए, जैसे कि प्रकृति भी बैजू की संगीत साधना के आगे नतमस्तक हो गई हो।
तानसेन और बैजू के सुरों की इस जादुई टक्कर ने सबको मंत्रमुग्ध कर दिया था। बारिश की बूंदें और जलते हुए दीपक, यह दृश्य किसी चमत्कार से कम नहीं था। दोनों संगीतकारों ने अपनी-अपनी कला का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया, और साबित कर दिया कि वे दोनों ही महान हैं।
जब प्रतियोगिता समाप्त हुई, तो लोगों ने दोनों संगीतकारों की भूरी-भूरी प्रशंसा की। यह प्रतियोगिता केवल एक मुकाबला नहीं, बल्कि संगीत की साधना का एक प्रतीक बन गई।इस रोमांचक संगीत प्रतियोगिता ने न केवल तानसेन और बैजू बावरा की महानता को सिद्ध किया, बल्कि यह भी दिखाया कि सच्ची कला किसी सीमा में बंधी नहीं होती। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि समर्पण और मेहनत से कोई भी ऊँचाई प्राप्त की जा सकती है।
तानसेन की अद्वितीय गायकी और बैजू की अप्रतिम संगीत साधना हमें प्रेरित करती है कि संगीत केवल मनोरंजन का साधन और सुरों का खेल नहीं, नहीं बल्कि आत्मा की शांति और सृजनात्मकता का स्रोत भी है। आत्मा की अभिव्यक्ति है।दोनों की जीवन कहानियाँ भारतीय संगीत की अमूल्य धरोहर हैं और हमें यह याद दिलाती हैं कि समर्पण और कड़ी मेहनत से असाधारण सफलता प्राप्त की जा सकती है।
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